मां – प्यार का दूसरा नाम …… कुछ देर पहले नेट पर कुछ सर्च कर रही थी कि तभी एक लेख पढने को मिला कि मां के हाथ के खाने जैसा दुनिया में और कुछ नही हो सकता… उसमे बहुत सारी बाते बताई हुई थी कि मां के हाथ मे ये है मां के हाथ में वो है… कुछ बातें बहुत अच्छी भी लगी पर जब भी मां के हाथों से बने खाने की बात होती है तो मुझे बस एक ही बात याद आती है और वो है ..पेट भरने के बाद, मना करने के बावजूद , एक फुल्का और लो ना बस ये बिल्कुल छोटा सा है … यानि मना करने के बाद भी आखिरी फुल्का तो खिलाना ही होता है… जिसे दूसरी भाषा में कहते हैं Over eating ya torture…. पेट के साथ … पर क्या करें खाना इतना लजीज जो होता है … हां तो मैं बता रही थी….
बात उन दिनों की है जब मैं कुरुक्षेत्र से एम ए (संगीत) कर रही थी. होस्टल मे खाना खा रही थी. उस दिन मेरे पसंदीदा राजमा चावल बने थे. पेट भर गया था पर नियत नही भरी थी. मैस वाला भाई प्लेट में फुल्का डाल गया और मैने कहा कि और नही चाहिए. फिर मैं बहुत देर तक इंतजार करती रही कि वो फुल्का ले कर आएगा… असल में, वो क्या है ना कि जब मम्मी को मना करती तो बाद मे एक चपाती तो आनी ही आनी होती थी . होता वही साईज था पर कहने को पतली सी छोटी सी होती. वही आदत पडी हुई थी और याद भी नही रहा कि मैं घर नही होस्टल मे हूं और ये मैस वाला भईया है मेरी मम्मी नही. मैने जब उसे बुला कर पूछा कि चपाती क्यो नही दी इतनी देर से इंतजार कर रही हूं तो वो बोला कि आपने ही तो मना किया था.
उस रात मैं अपने कमरे मे जाकर मम्मी को याद करके बहुत रोई… फिर धीरे धीरे आदत पड गई.
ये जो प्यार है न कि बस एक आखिरी , छोटी सी और ….
ये हमेशा बहुत याद आता है मां का ऐसा प्यार , दुलार और कही भी नही देखने को मिल सकता. वाकई में, मां – प्यार का दूसरा नाम ही तो है … है ना !!!!