हे न्यूज चैनल्स
बचपन में हम एक खेल खेलते थे. गाय उड, चिडिया उड, फल उड, आज शायद यही खेल न्यूज चैनल खेल रहा है. एक खबर बनती है और दूसरी फुर्र करके उड जाती है… किसान आत्महत्या की खबर उड. इंद्राणी उड, रेप उड, विवादित बयान उड, अकादमी सम्मान उड…
कल मणि से बात होते होते बहस में तबदील हो गई. असल में, बात हो रही थी न्यूज चैनल की. जिस तरह से खबरें परोसी जा रही हैं… अंतहीन बहस हो रही है उस का क्या प्रभाव हो रहा है समाज पर. मेरी राय यह थी कि न्यूज चैनल आतंक फैला रहे है जहां उनकी भूमिका निष्पक्ष होनी चाहिए पर उससे उलट वो टीआरपी बढाने के चक्कर मे कुछ भी परोसे जा रहे हैं जबकि उनके उपर बहुत बडा दायित्व है समाज के प्रति. उसके क्या पूछ्ने पर मैने बताया चाहे हिंदू मुस्लमान के झगडे हो या बडबोले नेताओ के विवादित बयान… अरे !!! जो जरुरी ही नही है वो किसलिए दिखाए जाएं… ना दिखाने की बात तो दूर वो तो तोड मरोड के पेश किए जा रहे हैं फिर उस पर लोगो के टवीट दिखाते हैं और एक घंटा बहस करवाते हैं और नतीजा … गई भैंस पानी में …यानि शून्य…
इस पर उसका कहना था कि कई खबरे जरुरी होती है दिखाना चाहिए कि समाज में क्या क्या हो रहा है !!! और हिंदू मुस्लमान के झगडे ??? मैने बीच मे ही बात काटी… ये क्या है इससे क्या भला होगा समाज में बल्कि बार बार दिखा कर आपसी नकारात्मकता और हिंसा को ही बढावा मिलेगा… बिल्कुल गलत ट्रैक पर चले गए हैं न्यूज चैनल..बस अपने 24 घंटे पूरे करने हैं जिसमें मार काट, दंगे, विवादित बयान और विज्ञापन ही मकसद रह गया है. एक तरफ कैंसर की बात करेंगें दूसरी तरफ पान मसाला उस कार्यक्रम को प्रायोजित करता है !! बहुत उलझा हुआ मसला है ये !!
ऐसा नही था हमारा देश.. !! अचानक मैं इमोशनल हो गई. हिंदू ,मुस्लमान को हमने कभी नही अलग समझा. बचपन मे भी यही पढा था कि भारत में भिन्नता होते हुए भी एकता का देश है और वाकई था … पर जिस तरह से घर वापिसी और बीफ, मार काट के मुद्दे उठे मानों खबरों का पूरा संसार ही बदल गया. बीफ गौ वध सुन सुन कर कान ही पक गए. मेरे एक मित्र बता रहे थे कि आजकल न्यूज चैनल लगाने मे एक डर सा लगने लगा है..पता नही क्या झेलना पड जाए. और तो और साहित्य अकादमी को लेकर सम्मान लौटाने के मुद्दे को भी इन्होने बेवजह बहुत तूल दे दिया और भिडा दिया साहित्यकारों को …!!! राजनीति डाल दी उनके लेखन में !!! बेशक, जिस तरह से साहित्यकारों में अपवाद हैं ठीक वैसे ही न्यूज चैनल्स में भी अपवाद हैं …
पर फिर भी समझ नही आता कि बेसिर पैर की खबरे दिखा कर क्या मकसद पूरा करना चाह्ते हैं.
अरे भई !!!दिखाओ पर दोनो पहलू तो दिखाओ … सकारात्मक दिखाते नही बस नकारात्मकता के पीछे ही पडे हुए हैं. मैं खुद भी दस साल ज़ी न्यूज से जुडी रही हूं पर यकीनन तब इतना बुरा हाल नही था खबरों का…!!! शायद इसलिए कि तब टवीटर और सोशल मीडिया इतना तेज नही था..
आज इंसानियत उड, संवेदनशीलता उड…. गम्भीरता उडन छू हो चली है और बिना किसी निष्कर्ष के हमारी भी बह्स गर्म चाय पर समाप्त हो गई.
ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानों ये न्यूज चैनल रावणी हंसी हंस रहे हों और हम दर्शक सीता के समान हाय राम हाय राम चिल्ला रहे हो … कि आओ हमे इससे बचाओ …!!!( राम लीला का मौसम है न इसलिए ये डायलाग लिखना जरुरी है)
हे न्यूज चैनल्स जरा रहम करो !!! ईश्वर आपको सदबुधि प्रदान करे!!!