INVESTIGATIVE JOURNALISM
पुराने समय में पत्रकारों का अख़बार के नफ़ा-नुक़सान के बारे में सोचना भी अनैतिक था लेकिन जब से नौकरियाँ ठेके पर दी जाने लगीं तो न्यूज़रूम पर बाज़ार का क़ब्ज़ा हो गया. किसी समय में दिग्गज बुद्धिजीवी, साहित्यकार और अर्थशास्त्री अख़बारों के संपादक होते थे. अब अख़बार के मालिक वफ़ादारों को संपादक बनाकर उन्हें मुनाफ़े की ज़िम्मेदारी देने लगे.
अख़बार के पन्नों में ख़बर से अधिक विज्ञापन को प्राथमिकता मिलने लगी.मुनाफे के चलते और विज्ञापन की चकाचौंध के चलते कॉरपोरेट सेक्टर की धांधलेबाज़ी की ख़बरें कम होती गईं…. कम होती गई … और खत्म ही हो गई …
WE MISS YOU INVESTIGATIVE JOURNALISM…. 🙁 WHERE R U ???? COME BACK SOON…
INVESTIGATIVE JOURNALISM
संपादक की पगार से अधिक मार्केटिंग और सेल्स के मैनेजरों की पगार होने लगी. हद तो और भी ज्यादा तब बढ गई जब मुनाफे के लिए बडे बडे उद्योगपतियों ने न्यूज चैनल ही खरीद लिए और अब हर चैनल पर कोई न कोई किसी न किसी पार्टी का मुखिया( अप्रत्यक्ष रुप से ही सही ) पर विराजामन है ऐसे में खबरें कैसी होगी… इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है.
कुल मिला कर अगर ये कहा जाए कि अखबार मुनाफे का धंधा बन गया तो गलत न होगा … खोजने पर भी INVESTIGATIVE JOURNALISM यानि खोजी पत्रकारिता नही मिल रही…