Cartoon in Daink Bhasker दैनिक भास्कर इंदौर से प्रकाशित व्यापम मुद्दे पर मेरा बनाया कार्टून ….आज देश में सबसे ज्यादा सुर्खियों में है व्यापम मुद्दा जिसे अब तक का सबसे बडा खूनी घोटाला माना जा रहा है
Writer, Author, Cartoonist, Social Worker, Blogger and a renowned YouTuber
By Monica Gupta
By Monica Gupta
हिंसक होते बच्चे
कई बार लगता है कि बच्चो की गुस्सैल और हिंसक होती प्रवृति के जिम्मेदार और कोई नही हम खुद ही है. कारण भी एकदम ठोस है. असल में, बदलते समय के साथ साथ हमारी करनी और कथनी मे फर्क आता गया जो हम महसूस ही नही कर पाए और बच्चे इस बदलाव को सह नही पाए.
यकीनन हम बच्चो को किताबी पाठ पढाते रहे कि सदा सच बोलो . ईमानदारी का जीवन अपनाओ. बडो का आदर करो. नकल करने से जीवन मे कभी सफल नही होगे.पर हकीकत मे हम उनके आगे कुछ और ही परोसते रहे.
मसलन, अकसर झूठ बोलने पर हम ही उन्हे उकसाते हैं.पाठ ईमानदारी का पढाते हैं और आफिस से रिश्वत या तो ले कर आते हैं या उनके सुखद भविष्य के लिए दे कर आते हैं और तो और परीक्षा हाल मे बच्चो को नकल मारने के लिए सदा उत्साहित करते हैं ताकि कही अच्छी जगह दाखिला होने मे कोई दिक्कत ना आए.
जुगाड संस्कृति से हमेशा बच्चो को जोडे रखना चाहते हैं ताकि कोई दूसरा बच्चा उसको काट करके आगे ना निकल जाए. बडो का आदर करने का पाठ तो पढा देते हैं पर हम घर पर अपने ही बडे बुजुर्गो से ऊची आवाज मे बात करते हैं.
ऐसे मे अगर हम अपनी गलती मान लें तो कोई छोटे नही बन जाएगे.बच्चो का सही मार्गदर्शन हमारा पहला और आखिरी कर्तव्य होना चाहिए….
कैसा लगा आपको ये लेख हिंसक होते बच्चे …. जरुर बताईएगा 🙂
By Monica Gupta
By Monica Gupta
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बाल कहानी-मणि
मणि छ्ठी क्लास में पढने वाली बेहद चुलबुली और शरारती लडकी है. वो भी बडे होकर कुछ बनना चाह्ती है. कभी सोचती है पत्रकार बन जाऊ कभी सोच में आता है कि टीचर बन जाऊ तो कभी पुलिस अधिकारी पर आखिर में क्या होता है और क्या बनने की सोचती है …
इसी का ताना बाना है बाल कहानी-मणि में …
कहानी का अंत और भी ज्यादा रोचक है कि मणि का फैसला क्या रहता है …
बाल कहानी-मणि
ये कहानी नेशनल बुक ट्रस्ट की पत्रिका पाठक मंच बुलेटिन में प्रकाशित हुई थी …
By Monica Gupta
कहानी का जन्म
बात सन 92 की यूपी गाजियाबाद की है . अचाक एक विचार दिमाग में कौंधा और कहानी डाली और उसे सांध्य टाईम्स के दफ्तर जाकर दे आई . वैसे तो लिखने का बचपन से ही शौक रहा और अपने हिसाब से कहानी भेजती भी रहती थी . पर शायद जानकारी का अभाव था शायद कभी मौका नही मिला और रचना प्रकाशित नही हुई पर अच्छी बात ये भी रही कि उत्साह कभी कम नही हुआ.
ये बात 92 की है .उन दिनों नेट नही हुआ करता था और लेखकों का पूरा फोकस सांध्य दैनिक और राष्ट्रीय समाचार पत्र पत्रिकाओं पर ही होता था क्योकि भारी तादात में उसे ही पढा जाता था. हां , तो मैं बता रही थी कि कहानी लिखी और सांध्य टाईम्स के दफ्तर में दे आई. उसी शाम वो कहानी प्रकाशित भी हो गई. इससे लेखनी को बेहद बल मिला और लेखनी लगातार चलती रही.
बहुत लोग चाह्ते हैं कि आज कुछ लिखा और वो राष्ट्रीय पत्र पत्रिका में छप जाए. बेशल सोशल मीडिया बहुत बलवान हो गया है और लेखन को दिखाने का बहुत अच्छा माध्यम भी है पर मेरा मानना है कि अगर शुरुआत लोकल स्तर पर हो और धीरे धीरे अपनी कमियों को देख कर उपर उठते जाए तो बहुत अच्छा होगा …
और अब तो जबसे नेट की सुविधा हुई है कोई भी अपना ब्लाग बना कर लेखन आरम्भ कर सकता है.
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